शनिवार, 29 मई 2010

''मेरे आसुओं को वो पानी समझते हैं
हम जिसे जीते हैं उसे वो कहानी समझते हैं ''

''महलों ने ठोकर दिए मिली झोपडी में जगह
मुफलिस ही मुफलिस की परेशानी समझते हैं ''

''फासले से मिलने का सलीका सिख लीजिये
प्यार से मिलने को लोग नादानी समझते हैं ''

रविवार, 28 मार्च 2010

लिखने ही भर को तुम मत लिखना
हो सके जिस पे 'अमल' लिखना

पाती
पढ़े बहुत दिन हुए
कैसी है चाची 'फसल' लिखना

किसी का लिखा अब भाता नहीं है
शुरू खुद किया है 'गजल' लिखना

बहुत लिख चुके आग नफरतों के
बुझा जो सके अब वो 'जल' लिखना

जो है खरा वो ही बड़ा है
बुरा है किसी की 'नक़ल' लिखना
खिलौने ,घरौंदे ,घर की न पूछो
इस आंधी में अब तो शहर टूटते हैं

उस गाँव में हर साल मरते हैं लोग
पता न चला क्यूँ नहर टूटते हैं

बनाना भी चाहो दोबारा न बनते
यकीं के महल इस कदर टूटते हैं

लाओ कोई नया शब्द लाओ
घिसे से गजल के असर टूटते हैं

वहां की जमीं परती कहाँ है
सजते हैं मौल जो घर टूटते हैं .......